Bail Kya Hoti Hai Aur Kaisi Milti Hai Hindi – कानून के अनुसार अपराध दो तरह के होते हैं, जमानती और गैर जमानती। जमानती अपराध में मारपीट, धमकी, लापरवाही से गाड़ी चलाना, लापरवाही से मौत जैसे मामले आते हैं। इस तरह के मामले में थाने से ही जमानत दिए जाने का प्रावधान है। आरोपी थाने में बेल बॉन्ड भरता है और फिर उसे जमानत दी जाती है।
गैर जमानती अपराध- गैर जमानती अपराधों में लूट, डकैती, हत्या, हत्या की कोशिश, गैर इरादतन हत्या, रेप, अपहरण, फिरौती के लिए अपहरण आदि अपराध हैं। गैर-जमानती अपराध होने पर मामला मैजिस्ट्रेट के सामने जाता है। अगर मैजिस्ट्रेट को लगता है कि मामले में फांसी या उम्रकैद तक की सजा हो सकती है तो वह जमानत नहीं देता। इससे कम सजा के प्रावधान वाले मामले में मेट्रोपॉलिटन मैजिस्ट्रेट की अदालत केस के मेरिट के हिसाब से जमानत दे सकती है।
सेशन कोर्ट किसी भी मामले में जमानत अर्जी स्वीकार कर सकता है। मेट्रोपॉलिटन मैजिस्ट्रेट की अदालत में अगर उम्रकैद या फांसी की सजा के प्रावधान वाले केस में जमानत अर्जी लगाई गई हो और सीआरपीसी की धारा-437 के अपवाद का सहारा लिया जाए तो उस आधार पर कई बार जमानत मिल सकती है। यह याचिका कोई महिला या शारीरिक या मानसिक रूप से बीमार ही लगा सकता है। हालांकि आखिरी फैसला अदालत का ही होता है। यहां गौर करने वाली बात यह है कि सेशन कोर्ट किसी भी गंभीर मामले में जमानत दे सकता है लेकिन फैसला केस की मेरिट पर निर्भर करता है।
कानून के अनुसार, अगर पुलिस समय पर चार्जशीट दाखिल नहीं करे, तब भी आरोपी को जमानत दी जा सकती है, चाहे मामला बेहद गंभीर ही क्यों न हो। ऐसे अपराध जिसमें 10 साल या उससे ज्यादा सजा का प्रावधान है, उसमें गिरफ्तारी के 90 दिनों के भीतर चार्जशीट दाखिल करना जरूरी है। अगर इस दौरान चार्जशीट दाखिल नहीं की जाती है तो आरोपी को सीआरपीसी की धारा-167 (2) के तहत जमानत दिए जाने का प्रावधान है। वहीं 10 साल कैद की सजा से कम वाले मामले में 60 दिनों के भीतर चार्जशीट दाखिल करनी होती है और नहीं करने पर जमानत का प्रावधान है।
गिरफ्तारी से बचने के लिए कई बार आरोपी कोर्ट के सामने अग्रिम जमानत की अर्जी दाखिल करता है, कई बार अंतरिम जमानत की मांग करता है या फिर रेग्युलर बेल के लिए अर्जी दाखिल करता है। जब किसी आरोपी के खिलाफ ट्रायल कोर्ट में केस पेंडिंग होता है, तो उस दौरान आरोपी सीआरपीसी की धारा-439 के तहत अदालत से जमानत की मांग करता है। ट्रायल कोर्ट या हाई कोर्ट केस की मेरिट आदि के आधार पर अर्जी पर कोर्ट फैसला लेता है।
इस धारा के तहत आरोपी को अंतरिम जमानत या फिर रेगुलर बेल दी जाती है। इसके लिए आरोपी को मुचलका भरना होता है और निर्देशों का पालन करना होता है। अगर आरोपी को अंदेशा हो कि अमुक मामले में वह गिरफ्तार हो सकता है, तो वह गिरफ्तारी से बचने के लिए धारा-438 के तहत अग्रिम जमानत की मांग कर सकता है। कोर्ट जब किसी आरोपी को जमानत देता है, तो वह उसे पर्सनल बॉन्ड के अलावा जमानती पेश करने के लिए कह सकता है। अगर 10 हजार रुपये की राशि का जमानती पेश करने के लिए कहा जाए तो आरोपी को इतनी राशि की जमानती पेश करना होता है।
बेल न मिलने की कुछ और वजहें – Bail na milne ke karan
अदालत में जमानत पर सुनवाई के दौरान मामले की गंभीरता, गवाहों को प्रभावित किए जाने का अंदेशा, आरोपी के भागने की आशंका आदि फैक्ट्स को देखा जाता है। अगर ऐसा कोई अंदेशा हो तो जमानत नहीं मिलती। आरोपी अगर आदतन अपराधी है तो भी जमानत नहीं मिलती। ट्रायल की किस स्टेज पर जमानत दी जानी चाहिए, इसके लिए अलग-से कोई कानूनी व्याख्या नहीं है। ऐसे मामले जिसमें 10 साल कैद या उससे ज्यादा सजा का प्रावधान हो, उसमें गिरफ्तारी के 90 दिनों के भीतर जांच एजेंसी को चार्जशीट दाखिल करनी होती है। इस दौरान चार्जशीट दाखिल न किए जाने पर सीआरपीसी की धारा-167 (2) के तहत आरोपी को जमानत मिल जाती है। वहीं 10 साल से कम सजा के मामले में अगर गिरफ्तारी के 60 दिनों के भीतर चार्जशीट दाखिल न किया जाए तो आरोपी को जमानत दिए जाने का प्रावधान है।
चार्जशीट दाखिल होने के बाद – इस दौरान अगर चार्जशीट दाखिल कर दी गई हो तो जमानत केस की मेरिट पर ही तय होती है। केस की किस स्टेज पर जमानत दी दिया जाए, इसके लिए कोई व्याख्या नहीं है। लेकिन आमतौर पर तीन साल तक कैद की सजा के प्रावधान वाले मामले में मैजिस्ट्रेट की अदालत से जमानत मिल जाती है। एफआईआर दर्ज होने के बाद आमतौर पर गंभीर अपराध में जमानत नहीं मिलती। यह दलील दी जाती है कि मामले की छानबीन चल रही है और आरोपी से पूछताछ की जा सकती है। एक बार चार्जशीट दाखिल होने के बाद यह तय हो जाता है कि अब आरोपी से पूछताछ नहीं होनी और जांच एजेंसी गवाहों के बयान दर्ज कर चुकी होती है, तब जमानत के लिए चार्जशीट दाखिल किए जाने को आधार बनाया जाता है। लेकिन अगर जांच एजेंसी को लगता है कि आरोपी गवाहों को प्रभावित कर सकते हैं तो उस मौके पर भी जमानत का विरोध होता है क्योंकि ट्रायल के दौरान गवाहों के बयान कोर्ट में दर्ज होने होते हैं और यह चार्ज फ्रेम होने के बाद ही होता है।
आखिरी फैसला अदालत का – ऐसे में मामला अगर गंभीर हो और गवाहों को प्रभावित किए जाने का अंदेशा हो तो चार्ज फ्रेम होने के बाद भी जमानत नहीं मिलती। ट्रायल के दौरान अहम गवाहों के बयान अगर आरोपी के खिलाफ हों तो भी आरोपी को जमानत नहीं मिलती। मसलन रेप केस में पीड़िता अगर ट्रायल के दौरान मुकर जाए तो आरोपी को जमानत मिल सकती है लेकिन अगर आरोपी के खिलाफ बयान दे दे तो जमानत मिलने की संभावना खत्म हो जाती है। कमोबेश यही स्थिति दूसरे मामलों में भी होती है। गैर जमानती अपराध में किसे जमानत दी जाए और किसे नहीं, यह अदालत तय करता है।
पैरोल क्या होता है – What is Pairol?
पैरोल भी कैदियों से जुड़ा एक टर्म है। इसमें कैदी को जेल से बाहर जाने के लिए एक संतोषजनक/आधार कारण बताना होता है। प्रशासन, कैदी की अर्जी को मानने के लिए बाध्य नहीं होता। प्रशासन कैदी को एक समय विशेष के लिए जेल से रिहा करने से पहले समाज पर इसके असर को भी ध्यान में रखता है। पैरोल एक तरह की अनुमति लेने जैसा है। इसे खारिज भी किया जा सकता है।
पै
पैरोल दो तरह के होते हैं। पहला कस्टडी पैरोल और दूसरा रेग्युलर पैरोल।
1. कस्टडी पैरोलः जब कैदी के परिवार में किसी की मौत हो गई हो या फिर परिवार में किसी की शादी हो या फिर परिवार में कोई सख्त बीमार हो, उस वक्त उसे कस्टडी पैरोल दिया जाता है। इस दौरान आरोपी को जब जेल से बाहर लाया जाता है तो उसके साथ पुलिसकर्मी होते हैं और इसकी अधिकतम अवधि 6 घंटे के लिए ही होती है।
2. रेग्युलर पैरोलः रेग्युलर पैरोल दोषी को ही दिया जा सकता है, अंडर ट्रायल को नहीं। अगर दोषी ने एक साल की सजा काट ली हो तो उसे रेग्युलर पैरोल दिया जा सकता है।
क्या होता है फरलो ? फरलो एक डच शब्द है। इसके तहत कैदी को अपनी सामाजिक या व्यक्तिगत जिम्मेदारियों को पूरा करने के लिए कुछ समय के लिए रिहा किया जाता है। इसे कैदी के सुधार से जोड़कर भी देखा जाता है। दरअसल, तकनीकी तौर पर फरलो कैदी का मूलभूत अधिकार माना जाता है।
पैरोल मिलने के कानूनी नियम – Rule of Pairol
- 1. पूर्ण और असाध्य अंधापन।
- 2. कोई कैदी जेल में गंभीर रूप से बीमार है और वो जेल के बाहर उसकी सेहत में सुधार होता है।
- 3. फेफड़े के गंभीर क्षयरोग से पीड़ित रोगी को भी पैरोल प्रदान की जाती है। यह रोग कैदी को उसके द्वारा किए अपराध को आगे कर पाने के लिए अक्षम बना देता है। या इस रोग से पीड़ित वह कैदी उस तरह का अपराध दोबारा नहीं कर सकता, जिसके लिए उसे सजा मिली है।
- 4. यदि कैदी मानसिक रूप से अस्थिर है और उसे अस्पताल में इलाज की जरूरत है।
साथ ही भारत के अंदर कई असाधारण मामलों में भी कैदी को पैरोल दी जा सकती है।
- 1. अंतिम संस्कार के लिए।
- 2. कैदी के परिवार का कोई सदस्य बीमार हो या मर जाए।
- 3. किसी कैदी को बेटे, बेटी, भाई और बहन की शादी के लिए।
- 4. घर का निर्माण करने या फिर क्षतिग्रस्त घर की मरम्मत के लिए।
Read Also : –
- जानिए उबर कैब कैसे बुक करें – Janiye Uber Cab Kaise Book Kre Hindi Guide
- आपसी सहमति से तलाक कैसे ली जाती है – Divorce With Consent Hindi Law Tips
- घर बैठे अपना पासपोर्ट बनवायें – Ghar Bethe Apna Passport Banwaye
- जानिए फ़ोन खो जाये तो कैसे ढूंढे – Janiye Phone Kho Jane Par Kya Kare Hindi Guide
- जानिए अपहरण एवं व्यपहरण पर कानून – Janiye Indian Kidnapping Law HIndi – Guide
- मजबूत मसल्स के लिए ले प्रोटीन – Strong Muscles Ke Liye Lijiye Protein Hindi
- जानिए शीघ्रपतन के बारे में सबकुछ, क्या, क्यों, कैसे? – Premature ejaculation Hindi Full Guide 2
Leave a Reply