बाबरी मस्जिद पर सुप्रीम कोर्ट की सलाह अव्यवहारिक क्यों है – विचार | Babri Masjid Case
Babri Masjid Case – लगभग 25 / वर्ष के बाद बाबरी मस्जिद Babri Masjid मामले के संबंध में शीर्ष अदालत ने भाजपा के विवादास्पद नेता सुब्रमण्यम स्वामी की याचिका पर सुनवाई करते हुए यह सलाह दी है कि दोनों पक्ष इस मामले को आपसी बातचीत से हल कर लें क्योंकि यह विश्वास और धर्म का मामला है।
वास्तव में मुख्य न्यायाधीश जगदीश सिंह की अध्यक्षता वाली तीन सदस्यीय खंडपीठ की तरफ से यह एक सराहनीय प्रयास है लेकिन यह सलाह पिछले अनुभवों की रोशनी में बिल्कुल व्यावहारिक नहीं है। क्योंकि अब तक होता यह रहा है कि जब भी इस तरह की कोशिश की गई है हिंदू दलों की ओर से सुलह की किसी फार्मूला के बजाय मुसलमानों को मनाने की कोशिश की गई है कि मंदिर बाबरी मस्जिद की जगह बनाने दें और मस्जिद के लिए कोई और जगह ले लें।
यह बात बेहद हास्यास्पद है कि मूर्खों की दुनिया में रहने वाले लोग मसालिहत की भी बात करते हैं लेकिन एकतरफा जो कि सुलह के सिद्धांतों के बिलकुल खिलाफ है–कया खूब अवधारणा है कि आपसी बातचीत से मामले को हल कर लेंगे लेकिन मंदिर वहीं बनाएंगे! अगर ऐसा ही करना चाहते हैं तो समय समय पर आपसी बातचीत के इस ढोंग की जरूरत ही क्या है?
सरकार के अंदर और एक नई सरकार को लोकतांत्रिक व्यवस्था में कभी भी स्वीकार नहीं किया जा सकता, फिर यह क्या तमाशा है कि एक तरफ हमारे देश में मज़बूत लोकतांत्रिक व्यवस्था और न्यायपालिका मौजूद है उसके बावजूद सरकार के ही कुछ लोग मामले को अपने हाथों में लेकर आए दिन उत्तेजना का प्रदर्शन और बेतुकी बातें करते रहते हैं। कहीं ऐसा तो नहीं कि सरकार में शामिल कुछ अदूरदर्शिता लोग यह सोच रहे हैं कि सत्ता पर कब्जा कर लेने के बाद आप जो चाहे कर सकते हैं, अगर ऐसा है तो उन्हें यह पाठ पढ़ा दिया जाना चाहिए कि लोकतांत्रिक व्यवस्था में ऐसा करना आत्महत्या के बराबर है और ऐसा केवल एक तानाशाह ही कर सकता है जो अपनी ताकत के नशे में चूर होता है।
तथ्य का अगर समीक्षा की जाए तो हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि 24 / वर्ष से भी अधिक समय किसी मामले को हल करने के लिए अपर्याप्त नहीं हैं, फिर कीयों न्यायपालिका बाबरी मस्जिद Babri Masjid मामले में निर्णायक निष्कर्ष पर पहुंच मैं असमर्थ है? दो ही बात हो सकती है या यह कि राम जन्मभूमि के अस्तित्व का सबूत होगा या ये कि बाबरी मस्जिद किसी मंदिर को तोड़कर नहीं बनाई गई तीसरी कोई और शक्ल नहीं हो सकती , और यह कि अगर विरोधी पार्टी बाबरी मस्जिद की जगह राम जन्मभूमि को सबूतों के आधार पर साबित नहीं कर पा रहे हैं तो फैसला बाबरी मस्जिद के पक्ष में हो जा ना चाहिए। कहीं ऐसा तो नहीं कि शीर्ष अदालत को अज्ञात कारणों के आधार पर निर्णय लेने में देरी हो रही है?
बाबरी मस्जिद Babri Masjid के मामले में मुसलमानों के दो स्पष्ट स्टैंड हैं, एक धार्मिक दृष्टि से और एक बतौर भारतीय होने के।(1) धार्मिक दृष्टि से स्टैंड यह है कि ऐतिहासिक साक्ष्य के आधार पर मस्जिद ग़स्ब की हुई पृथ्वी पर निर्माण नहीं हुई है इसी लिए बाबरी मस्जिद क़यामत तक मस्जिद ही रहेगी क्योंकि मस्जिद की शरई हैसियत यह है कि व नींव के बाद से क़यामत तक मस्जिद ही रहती है चाहे बहुत पुराणी होने की वजह से खस्ता हालात हो जाए या किसी विध्वंसक की शिकार बन जाए और चाहे दुश्मनों के कब्जे में चली जाए या सुरक्षा के नाम पर इसे बंद कर दिया जाए। (2) और बतौर भारतीय मुसलमानों को न्यायिक व्यवस्था पर पूरा भरोसा है इसीलिए मुस्लिम न्यायालय के फैसले के इंतजार में हैं, शीर्ष अदालत से जो भी फैसला आएगा वह मुसलमानों के लिए स्वीकार्य होगा और हाँ यह अदालत की जिम्मेदारी है कि वह अपने निर्णय का आधार साक्ष्य को बनाए न कि धार्मिक भावनाओं (आस्था) को।
यहां यह उल्लेखनीय है कि भारतीय संविधान के संदर्भ में भी मुसलमानों का हक बनता है कि उन्हें उनके इबादत गाहों से वंचित न किया जाए क्योंकि भारतीय संविधान के अनुच्छेद 30 के तहत मुसलमानों को पूर्ण धार्मिक स्वतंत्रता प्राप्त है।
यह एक ऐतिहासिक सत्य है कि जिस धरती पर न्याय की सर्वोच्चता स्थापित करना एक सपना बन जाता है उस धरती पर शांति के लिए किए गए प्रयासों का जनाज़ा निकल जाता है और जिस धरती के रहने वाले शक्तिशाली व्यक्ति न्यायपालिका के निर्णय को गलत तरीके से प्रभावित करने की कोशिश करते हैं इस धरती पर निर्बलों को न्याय मिलना एक असंभव प्रक्रिया बन जाता है। इस संदर्भ में तत्कालीन हमारा देश प्रभावशाली व्यक्तियों की चपेट में है, ऐसे कितने ही मामले हैं जिसमें राजनीति की आड़ लेकर अपराधि सम्मानजनक नागरिक बनते फिर रहे हैं और ऐसे भी कितने मामले हैं जिसमें कमजोर लोग सलाखों के पीछे अपने आँसू सूखा चुके हैं।
6 /दिसंबर 1992 को बाबरी मस्जिद Babri Masjid की शहादत देश की इतिहास को एक भयानक मोड़ देने वाला हादसा था जब हम इस बात का गहराई से समीक्षा करते हैं तो यह कड़वी बात हमारे सामने आती है कि इस मामले की कड़ी नफरत फैलाने वाले स्वार्थी राजनेताओं से जा मिलती है जिन्होंने हिन्दू जनता को अपना उपकरण बनाकर इस अपराध के लिए उकसाया। चूंकि नेताओं के उस वर्ग से निपटना जनता की पहुंच से बिल्कुल बाहर है इसलिए न्यायपालिका की सर्वोच्चता ज़रूरी है ताकि मूल अपराधियों तक पहुंच कर उन्हें उनके अपराध के बदले में सजा देकर न्याय को हकीकी रूप दिया जा सके और आम भारतीयों की यही आखिरी उम्मीद है।
(लेखक मरकज़ुल मआरिफ़ एजुकेशन एंड रिसर्च सेण्टर मुम्बई मैं लेक्चरर और ‘ईस्टर्न क्रिसेंट’ मैगज़ीन के असिस्टेंट एडिटर हैं। ये उनके निजी विचार हैं)
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